कश्मीरी पंडितों का दर्द बयां करती विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म 'शिकारा’ रिलीज के बाद विवादों में आ गई है। दिल्ली में हुई स्क्रीनिंग के दौरान एक महिला कश्मीरी पंडित ने आरोप लगाया कि चोपड़ा ने फिल्म में उन्हें बेघर करने वालों के जुल्म को बहुत नरम तरीके से दिखाया है। नरसंहार और सामूहिक बलात्कार फिल्म में नहीं हैं। इसे लेकर दैनिक भास्कर ने कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले फिल्ममेकर अशोक पंडित का पक्ष जाना। 

 

शिकारा में नरसंहार का मजाक उड़ाया गया: अशोक पंडित 

 

अशोक पंडित ने कहा, "पहली बात तो यह है कि हर फिल्ममेकर का अपना एक परसेप्शन होता है। अपने परसेप्शन पर फिल्म बनाने का उसे पूरा अधिकार है। अपने लोकतांत्रिक अधिकार के तहत वह किसी भी विषय पर कैसी भी फिल्म बना सकता है। मुझे इस पर कोई ऐतराज नहीं है। यह तो हुई बात बतौर फिल्ममेकर अशोक पंडित की। लेकिन कश्मीरी पंडितों के पलायन का मसला मुझसे पर्सनली जुड़ा हुआ है। मेरे विस्थापन और निर्वासन से जुड़ा हुआ है। मेरे नरसंहार से जुड़ा हुआ है तो उसका तर्क है मेरे पास।

 

अगर यह कश्मीर पर लव स्टोरी है तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन जब आप कहते हैं कि फिल्म चार लाख कश्मीरी पंडितों को समर्पित है। या 30 साल पहले हुए उस पलायन की अनकही कहानी है और इसके अंत में एंड में फारुख अब्दुल्ला और मुफ्ती मोहम्मद सईद का शुक्रिया अदा करते हैं तो फिल्म बनाने का आपका पूरा परपस ही खत्म हो गया। क्योंकि फारूक अब्दुल्ला और मुफ्ती मोहम्मद सईद दोनों मेरे विस्थापन, निर्वासन और नरसंहार के लिए 100 फीसदी जिम्मेदार हैं। 

 

दूसरी बात यह कि आप किसी भी ऐतिहासिक नरसंहार या त्रासदी को धर्मनिरपेक्षता का जामा नहीं पहना सकते। आप डर-डर कर बातें नहीं रख सकते हैं। आपको बोलना पड़ेगा कि इनकी जो हत्या और बलात्कार हुए हैं, इनका जो नरसंहार हुआ है, वह कश्मीर के बहुसंख्यक मुस्लिमों ने किया है। स्टैंड लेना पड़ेगा, वरना फिल्म मत बनाओ।

 

यह बोल कर नहीं बच सकते कि उसके बाप को पुलिस ने मारा था, इसलिए वह आतंकी बना है। लिहाजा उसका क्राइम न्यायोचित है। तब तो इन्होंने हमारी पूरी कौम को मारा है। हम सब को भी आतंकवादी बन जाना चाहिए था। हमारे भी बलात्कार हुए हैं। हमारे लोगों को फांसी पर लटकाया गया। हमारी कौम से तो कोई आतंकवादी नहीं बना।

 

वनधामा में हमारी कौम का बहुत बड़ा नरसंहार हुआ था। पूरे के पूरे गांव को खत्म कर दिया गया था। उसका जिक्र फिल्म में नहीं है। फिर छत्तीसिंहपुरा में सिंह कम्युनिटी का नरसंहार है। आपने उसका जिक्र नहीं किया। 200 से 300 लोगों को एक साथ मार दिया गया था। आप उसका जिक्र नहीं कर रहे हैं।

 

हीरो के साथ-साथ आप अपनी हीरोइन को भी इतना सॉफ्ट बना रहे हो कि वह बार-बार उस लतीफ की बात करती है जो आतंकी है। जब वह टेररिस्ट मरता है तो हीरो-हीरोइन को बहुत दुख होता है। आतंकी तो आतंकी है न। यह आप फिल्म में खुलकर क्यों नहीं कह रहे हो? 30 साल पहले 19 जनवरी को जो हुआ था, उसके स्लोगंस मस्जिदों से निकले थे। वह आपने फिल्म में नहीं दिखाया।

 

मान लो कि मैं विभाजन पर फिल्म बना रहा हूं तो मैं 'तमस' जैसी बनाऊंगा न।  'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' तो नहीं बना सकता न। मैं अगर 'वॉर' फिल्म बना रहा हूं तो हकीकत दिखाऊंगा, न कि दोस्ती का हाथ दिखाऊंगा।

 

लिहाजा यह फिल्म कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और नैतिक हनन का अपमान है। आपने किसी को कटघरे में खड़ा नहीं किया। आपका हीरो बार-बार अमेरिका के प्रेसिडेंट को क्यों लिख रहा है? यह क्या बेवकूफाना हरकत है? उस वक्त के सीएम को लेटर क्यों नहीं लिख रहा था? यह क्या कपोल कल्पना है। आखिर आप इस नैरेटिव के जरिए क्या कहना चाहते हैं? यह कि किसी स्टेट की मशीनरी जिम्मेदार नहीं है? क्योंकि अमेरिका ने अफगानिस्तान में एम्युनेशन भेजे थे।

 

उसका साइड इफेक्ट कश्मीरियों को झेलना पड़ा। यह तो कमाल है। आप किसे बेवकूफ बना रहे हो? आपका हीरो अमेरिका को 200 चिट्ठियां लिख देता है और जो कश्मीरी पंडितों के पलायन के कसूरवार हैं, उनका आप शुक्रिया अदा कर रहे हैं। यह सही नहीं है।

 

ऐसा कोई कश्मीरी पंडित था ही नहीं जो अमेरिका के प्रेसिडेंट को खत लिखे। प्रेसिडेंट से क्या लेना देना? यह तो वही बात हो गई कि आप इस देश में किसी नेता को नहीं मानते। हमारा तो लोकल सीएम के साथ अप्रोच नहीं था तो हम अमेरिका कहां पहुंच जाएंगे? यह नैरेटिव एयरकंडीशन कमरों में बैठे हुए व्यक्ति के दिमाग की उपज होती है। वे लोग सिर्फ अमेरिका के बारे में सोच सकते हैं। लोकल मशीनरी के बारे में नहीं। यह एक जोक है। हमारी त्रासदी का एक मजाक है। हमारे आंसुओं को बेचा गया है।

 

आपने एक डॉक्यूमेंट्री नहीं बनाई है। उस मुद्दे पर फिल्म बनाई है। आपने उस फिल्म को यह कहकर बेचा है कि 30 साल के बाद पहली बार किसी ने अनटोल्ड स्टोरी पेश की है। वह भी झूठ है। पहली बार तो मैंने बनाई थी तीस साल पहले 'शीन' नाम से। कश्मीरी हिंदुओं के निर्वासन पर बेस्ड थी वह फिल्म। फिर यह अनटोल्ड स्टोरी कैसे हो सकती है? यह स्टोरी हर महीने हर दिन कही गई है। 

 

विधु विनोद चोपड़ा का पक्ष

दूसरी तरफ विधु विनोद चोपड़ा ने अपने नैरेटिव को जस्टिफाई किया है। उन्होंने अपना पक्ष रखा। उन्होंने कहा-  हम सभी के विचारों का सम्मान करते हैं। मुझे ऑन रिकॉर्ड यह भी कहने दें कि हमने इस फिल्म की कई स्क्रीनिंग करवाईं। उन सब में हमें बेहद गर्मजोशी से प्रतिक्रियाएं मिलीं। लोगों ने हमें स्टैंडिंग ओवेशन दिए। ढेर सारे कश्मीरी पंडितों ने कहा कि यह उनकी कहानी को सटीक रूप से चित्रित करता है।

 

हमारी फिल्म डॉक्युमेंट्री नहीं है, बल्कि एक कश्मीरी पंडित कपल के प्यार और त्याग की कहानी है, जो कश्मीरी पंडित पलायन और निर्वासन के बैकड्रॉप पर बेस्ड है। यह फिल्म मूल रूप से राहुल पंडिता की किताब 'आवर मून हैज ब्लड क्लॉट्स’ पर आधारित है। यह साथ ही खुद बतौर कश्मीरी पंडित मेरी जिंदगी के अनुभवों का सार है। इसे बनाने में मुझे 11 साल लगे हैं। मैं लोगों से फिल्म देखने का आग्रह करूंगा। उसके बाद खुद फैसला लेने की गुजारिश भी करूंगा।

మరింత సమాచారం తెలుసుకోండి: