नयी दिल्ली। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि उसने 1984 के सिख विरोधी दंगों से जुड़े मामलों की जांच के लिए बने विशेष जांच दल (एसआईटी) की सिफारिशें स्वीकार कर ली हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस एसएन ढींगरा की अध्यक्षता में बनी एसआईटी ने 186 मामलों की जांच की है। अब इन पर कानून के मुताबिक कार्रवाई की जाएगी। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने चीफ जस्टिस एसए बोबडे को यह जानकारी दी। 

 
इस मामले में वरिष्ठ वकील आरएस पुरी ने अर्जी डाली थी। मेहता ने कोर्ट से यह भी कहा कि इन मामलों के रिकॉर्ड सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री के पास हैं और उन्हें सीबीआई को लौटा देना चाहिए ताकि आगे कार्रवाई की जा सके। इस पर पीठ ने निर्देश दिया कि ये रिकॉर्ड गृह मंत्रालय को सौंप दिए जाएं। गौरतलब है कि जस्टिस ढींगरा की अध्यक्षता वाली इस एसआईटी का गठन 11 जनवरी, 2018 को हुआ था। इसे बंद कर दिए गए 186 मामलों की जांच का काम सौंपा गया था। 
 
सिख दंगो के दोषी बलवान खोखर को पैरोल मिली
 
सुप्रीम कोर्ट ने सिख दंगों के दोषी पूर्व सांसद सज्जन कुमार के साथ दोषी ठहराए गए बलवान खोखर को चार सप्ताह के पैरोल पर रिहा करने का आदेश दिया। यह छूट खोखर को अपने पिता के अंतिम संस्कार संबंधी कामों को पूरा करने के लिए दी गई है। कुमार तिहाड़ जेल में उम्रकैद की सजा भुगत रहा है। उसने स्वास्थ्य कारणों के आधार पर जमानत मांगी है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल बोर्ड गठित करके उसकी सेहत के बारे में जांच करने का आदेश दिया है।
 
न्यायपालिका पर टिप्पणियां
 
56 लोगों की हत्या की गई, सिर्फ पांच में चला मुकदमा
 
कल्यानपुरी पुलिस थाने में दर्ज एफआईआर संख्या 433/84 में पुलिस ने विभिन्न मामलों को इकट्टा दर्ज किया और 56 हत्याओं में चालान भेजा। लेकिन ट्रायल कोर्ट ने केवल पांच लोगों ही हत्या में मुकदमा चलाया। बाकी हत्याओं में आरोप ही तय नहीं किए गए।
 
गवाह कोर्ट में आकर अपने करीबियों और प्रियजनों की इन हत्याओं की गवाही देते रहे, साक्ष्य दिए गए, लेकिन किसी में आरोप तय नहीं किए गए। नतीजा, इन हत्याओं के लिए किसी को सजा भी नहीं हुई। एसआईटी अपनी रिपोर्ट में लिखती है, ‘यह कभी मालूम नहीं हो सकेगा कि 56 हत्याएं हुई तो पांच में ही आरोप क्यों तय किए गए?’ 

 
अदालत ने हर हत्या की अलग सुनवाई करने का निर्णय क्यों नहीं लिया? एक महिला ने अपने परिजनों की हत्या की गवाही के दौरान कहा कि वह हत्यारों को जानती है, पहचान सकती है, जज या सरकारी वकील ने भीड़ बनाकर लाए गए आरोपियों में से हत्यारों को पहचानने तक के लिए उसे नहीं कहा। 

 
एक रूटीन की तरह आरोपियों को रिहा किया जाता रहा। किसी भी फैसले में इसे लेकर कोई चर्चा दर्ज नहीं है। किसी जज ने परवाह नहीं की कि दंगों की एफआईआर किन हालात में लिखी जा रही हैं, बयान कैसे लिए जा रहे हैं, देरी क्यों हो रही है?
 
सैकड़ों आरोपी बनाए, केस लटकाए
 
हत्या के मामलों में पीड़ितों ने आरोपियों के नाम पुलिस को बताए, लेकिन पुलिस ने अलग अलग जगह व समय पर हुई हत्याओं के कोर्ट में एक साथ चालान पेश किए। कानूनन एक ही तरह के केवल तीन मामलों में ऐसा कर सकती थी। सभी आरोपियों को सुनवाई में साथ लाने लगी। 

 
जज भी चाहते तो अलग अलग चालान दायर करने के लिए पुलिस को कह सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे तारीख पर कई आरोपी कोर्ट नहीं आते और सुनवाई लंबी चलती गई। निराश होकर कई पीड़ित सुनवाई से अलग हो गए, बयान बदलते गए
 
पुलिस की खामियां
 
34 साल बाद जांच मुश्किल
 
सभी 199 मामलों में आगे जांच होनी चाहिए, बड़ी संख्या में हत्या, दंगों, लूट, आगजनी के आरोपी सजा से दूर हैं या उनका पता नहीं है। लेकिन काफी समय बीतने से जांच संभव नहीं है। कुछ मृतकों के परिजन, पीड़ित व चश्मदीद मर चुके हैं, कुछ में आरोपी। 34 साल बाद संबधित दस्तावेज भी लोगों के पास शायद नहीं होंगे।
 
एक एफआईआर में 500 घटनाएं साथ दर्ज गईं
 
पुलिस और प्रशासन ने आरोपियों को सजा दिलाने की नीयत से कानूनी कार्रवाई नहीं की। घटना व अपराध के अनुसार एफआईआर दर्ज नहीं की गई। एक ही एफआईआर में कई मामले दर्ज किए। सुल्तानपुरी थाने में दर्ज एफआईआर संख्या 268/84 में हत्या, लूट, आगजनी, की 498 घटनाएं साथ दर्ज की र्गइं। एक जांच अधिकारी 500 घटनाओं की जांच कैसे कर सकता था? पुलिस को एसटीएफ बनानी चाहिए थी।
 
पुलिस ने शवों के साक्ष्य रखे न जजों ने गवाहियां मानी
 
सैकड़ों लावारिस शव मिले, लेकिन पुलिस ने उनके फॉरेंसिक साक्ष्य नहीं रखे, जिससे आगे उनकी पहचान नहीं हुई। पुलिस व प्रशासन दंगों में हुए अपराध छिपाने में जुटे रहे। 1985 में दिए गए हलफनामों पर 1991-92 में एफआईआर दर्ज हुईं। इसी वजह से तत्कालीन जजों ने इन मामलों में गवाहियों को माना नहीं।  

మరింత సమాచారం తెలుసుకోండి: