आज सोमवार को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होगा। लेकिन शायद यह पहला एसा विधानसभा चुनाव है जिसमें लोगों के नतीजों का अनुमान पहले से ही है। बहस सिर्फ इस पर है कि भाजपा शिवसेना गठबंधन 288 सदस्यों वाली विधानसभा में 200 से ज्यादा सीटें जीतेगा या सवा दो सौ का आंकड़ा पार करेगा। दो गठबंधनों भाजपा शिवसेना बनाम कांग्रेस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के बीच हो रहे इस मुकाबले में जहां लगातार सिकुड़ती जा रही शिवसेना को भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से फिर ऑक्सीजन मिलती दिख रही है, वहीं दूसरी तरफ विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस एनसीपी के गले का पत्थर बनने की बात भी कही जा रही है।


मुंबई हो या पुणे बातचीत में दबी जुबान से खुद कांग्रेसी भी कहते हैं कि कोई दैवी चमत्कार ही हो जाए तो बात अलग वरना पार्टी को अभी से विपक्ष में बैठने की तैयारी कर रही है। जबकि सत्ताधारी गठबंधन को अगर कहीं थोड़ी बहुत चुनौती मिल भी रही है तो वह कांग्रेस से नहीं एनसीपी से उन सीटों पर मिल रही है, जिन्हें शरद पवार का गढ़ माना जाता है। इसीलिए ऑफ द रिकार्ड बातचीत में राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता भी कहने लगे हैं कि अगर एनसीपी अकेले लड़ती तो ज्यादा फायदे में रहती, सरकार भले ही न बना पाती, लेकिन एक मजबूत विपक्ष बनकर जरूर उभरती और भाजपा शिवसेना गठबंधन को 150 से ज्यादा सीटों से आगे नहीं बढ़ने देती।
कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की वजह से एनसीपी सिर्फ 125 सीटों पर ही लड़ पा रही है। जहां भाजपा शिवसेना के नेता सवा दो सौ से ज्यादा सीटें जीतने का दावा करते हैं, वहीं कांग्रेस और एनसीपी के कार्यकर्ता और मझोले नेता भी ऑफ द रिकार्ड मंजूर करते हैं कि बाजी उनके हाथ से निकल चुकी है। अब सीटें कितनी आएंगी इस पर आप बहस करते रहिए लेकिन ऑफ द रिकार्ड बाततचीत में कोई कांग्रेसी अपने गठबंधन की सरकार बनने की बात आत्मविश्वास से नहीं करता मिलेगा।


ज्यादा से ज्यादा अगर कोई अति उत्साही कांग्रेसी मिल जाए तो यही कहेगा कि पिछली बार से पार्टी और गठबंधन के पक्ष में अच्छा नतीजा आएगा। क्योंकि इस बार कांग्रेस एनसीपी मिलकर लड़ रहे हैं, इसलिए दोनों का वो नहीं बंटेगा। लेकिन भाजपा शिवसेना भी मिलकर लड़ रहे हैं, इसका नुकसान कांग्रेस एनसीपी को क्यों नहीं होगा, इसका संतोषजनक जवाब कांग्रेसी एनसीपी नेताओं के पास नहीं मिलता है। कांग्रेस जिसने 2014 तक करीब 15 सालों तक महाराष्ट्र पर शासन किया अचानक इतनी कमजोर कैसे हो गई। दरअसल कांग्रेस ने उसी तरह महाराष्ट्र को भी अपने हाथ से गंवा दिया जैसे उसने उत्तर प्रदेश, बिहार, प.बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात और आंध्र प्रदेश व तेलंगाना को खो दिया। कांग्रेस नेतृत्व ने अपनी पुरानी हारों और गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा। 2014 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस ने करीब तीन साल तक मुख्यमंत्री रहे अपन नेता पृथ्वीराज चह्वाण को नेता विपक्ष न बनाकर उन विखेपाटिल को नेता विपक्ष बनाया जिन्होंने २०१९ के लोकसभा चुनाव से पहले अपने बेटे को भाजपा में भेजा और विधानसभा चुनाव से पहले खुद भी भाजपा में चले गए। जबकि विलासराव देशमुख की असामयिक मौत के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस में जो शू्न्य पैदा हुआ उसे दो पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण या पृथ्वीराज चह्वाण भर सकते थे।


अशोक चह्वाण आदर्श घोटाले में आरोपित होने के कारण भाजपा शिवसेना के सामने बैकफुट पर थे, लेकिन ईमानदार और साफ सुथरी छवि वाले पृथ्वीराज चह्वाण भाजपा शिवसेना को चुनौती दे सकते थे, अगर पार्टी नेतृत्व उन्हें जिम्मेदारी देकर मौका देता।लेकिन कांग्रेस के दिल्ली दरबार की शतरंजी सियासत ने महाराष्ट्र में भी वही मूर्खतापूर्ण आत्मघाती प्रयोग जो पहले उन राज्यों में किए गए जहां आज कांग्रेस की मौजूदगी न के बराबर बची है। पूरी तरह संगठन के जमीनी कार्यकर्ता से नेता बने प्रभारी महासचिव मोहनप्रकाश को बदलकर बुजुर्ग मल्लिकार्जुन खड़गे को महाराष्ट्र का प्रभारी बना दिया गया जिनके पास राज्य के नेताओं से मिलने और बात करने का वक्त ही नहीं था। लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी के इस्तीफा प्रकरण ने तीन महीने तक वैसे ही केंद्रीय नेतृत्व को पंगु बना दिया और खड़गे महाराष्ट्र में कांग्रेस की चिंता की बजाय अपने लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की संभावना देखने में व्यस्त थे। नतीजा एक एक करके राज्य के कांग्रेस नेता पार्टी छोड़ते गये या घर बैठते गए केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से उन्हें रोकने या मनाने की कोई पहल नहीं हुई। कभी महाराष्ट्र में दिग्गज कांग्रेस नेताओं की भरमार थी और शरद पवार जैसे छत्रप के पार्टी छोड़ने के बावजूद कांग्रेस कमजोर नहीं हुई, वहां विलासराव देशमुख की मृत्यु के बाद कोई जमीनी नेता ही नहीं बचा।


पुराने नेताओं में सुशील कुमार शिंदे बुजुर्ग हो गए। सुरेश कलमाड़ी कानूनी लड़ाई में उलझ कर खर्च हो गए। रंजीत देशमुख, गुरुदास कामथ, माणिकराव ठाकरे जैसे राज्य स्तरीय नेताओं की गैरमौजूदगी, नारायण राणे, कृपाशंकर सिंह जैसों का पार्टी छोड़ना, संजय निरुपम और मिलिंद देवड़ा नाराज होकर घर बैठ गए हैं। केंद्रीय नेताओं में सिर्फ राहुल गांधी ने ही कुछ चुनावी सभाओं को संबोधित किया। पार्टी का संगठन कमजोर है और दिशाहीनता है। कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा हुआ है और संसाधन की बेहद कमी है। अब सिर्फ उम्मीदवार अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं पार्टी नहीं। कांग्रेस उम्मीदवारों को भी एनसीपी नेताओं शरद पवार, सुप्रिया सुले अजित पवार आदि के नाम का सहारा लेना पड़ रहा है। एसा नहीं है कि महाराष्ट्र में सरकार के खिलाफ मुद्दे नहीं हैं। किसानों में असंतोष, बेरोजगारी, आर्थिक और औद्योगिक मंदी, पीएमसी बैंक घोटाला, पुणे जैसे शहर में भीषण जलभराव, आरे में पेड़ों की कटाई जैसे कई राज्य स्तरीय और स्थानीय मुद्दे हैं जिन पर सत्तारुढ गठबंधन को घेरा जा सकता था, लेकिन कांग्रेस एनसीपी गठबंधन ने इन मुद्दों को उस तरह नहीं उठाया जिससे ये चुनावी मुद्दे बन सकते थे। जबकि भाजपा शिवसेना ने अनुच्छेद 370 को चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बना दिया। खुद इसकी पहल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी जनसभाओं में की जिसे भाजपा शिवसेना के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं ने नीचे तक पहुंचा दिया।

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