आंध्रप्रदेश के एक छोटेसे गाँव में जन्मे और सरकारी स्कूल में सिर्फ दसवीं तक की पढ़ाई करने वाले कोटि रेड्डी ने साबित किया है कि कामयाब बनने के लिए ‘डिग्री’ कोई मायने नहीं रखती। डिग्री नौकरी पाने का एक ज़रिया-भर हो सकती है, लेकिन वो काबिलियत और कामयाबी की गारंटी नहीं दे सकती। पोंगल त्यौहार पर कपड़े खरीदने के लिए पिता से मिले 1000 रुपये से कोटि रेड्डी ने ‘सी- लैंग्वेज’ की दुनिया में कदम रखा। ऐसा करने से गुस्साए पिता के हाथों उनकी जमकर पिटाई भी हुई। कोटि रेड्डी ने अपने जीवन में बहुत-सी मुश्किलें झेलीं। गरीबी के थपेड़े भी खाए, कई रात भूखे पेट ही सोये, खेत-खिलहान में पसीना भी बहाया। उन्होंने 700 रुपये की मासिक पगार से एक किराना दुकान में डाटा इंट्री की नौकरी की। कोटि रेड्डी उस कंप्यूटर इंस्टिट्यूट के मालिक भी बने, जहाँ उन्होंने कंप्यूटर चलाना सीखा था। आगे चलकर कोटि रेड्डी ने हैदराबाद में पुर्ज़े जोड़कर कंप्यूटर बनाकर भी बेचे, लेकिन मेहनत और काबिलियत के बल पर वे एक दिन अपने ख्वाबों में बसी ‘माइक्रोसॉफ्ट’ की कंपनी तक पहुँच ही गये। वे यहाँ रुके नहीं, उन्हें कामयाबी के नए और बड़े झंड़े और भी गाड़ने थे। अपने दम पर कारोबार करने का जुनून उनपर कुछ इस तरह सवार हुआ कि वे उद्यमी बने। बतौर उद्यमी में वे कामयाब हैं। वे अपनी बनाई संस्थाओं के ज़रिए करोड़ों रुपयों का कारोबार भी कर रहे हैं, फिर भी उन्होंने सपने देखना बंद नहीं किया है। वे अपने कारोबार को विस्तार देना चाहते हैं। वे सैकड़ों, हज़ारों या लाखों नहीं बल्कि करोड़ों जीवन को सकारात्मक तौर पर प्रभावित करने वाला काम करना चाहते हैं, नवपरिवर्तन लाना चाहते हैं। चुनौतियों और मुसीबतों के दौर में संघर्ष और मेहनत से कामयाबी हासिल करने की घटनाएँ कोटि रेड्डी को दूसरे लोगों को प्रेरणा देने वाली एक शख्सियत बनाती हैं। 


संघर्ष से कामयाबी की इस विजय-गाथा की शुरुआत के कृष्णा जिले के जनार्दनपुरम गाँव से होती है। इसी गाँव में सारीपल्ली कोटि रेड्डी का जन्म हुआ। पिता कृषि मज़दूर थे और माँ गृहिणी। ज़रुरत पड़ने पर माँ भी खेतों में काम करती थीं। कोटि रेड्डी का परिवार ग़रीब था। पिता ने करीब बीस एकड़ ज़मीन पट्टे पर ली हुई थी और वे इसी ज़मीन में खेती करते थे। कोटि रेड्डी अपने माता-पिता की तीसरी संतान थे। उनसे पहले माता-पिता को दो लड़कियाँ हुई थीं। कोटि रेड्डी अपने परिवारवालों के साथ झोपड़ीनुमा छोटे से मकान में रहते थे। दो कमरों के इस मकान में छह लोग रहते थे – माता-पिता, बूढ़ी दादी, दो बहनें और कोटि रेड्डी। लकड़ी का चूल्हा घर के बाहर ही जलता था। बारिश होने पर भोजन घर में बनाया जाता। घर में बिजली भी नहीं थी। यही वजह थी कि कोटि रेड्डी अपना ‘होमवर्क’ और पढ़ाई ‘स्ट्रीट लाइट’में करने को मजबूर थे।


कोटि रेड्डी को बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में बहुत दिलचस्पी थी। उनकी पढ़ाई-लिखाई सरकारी स्कूल में हुई। वे शुरू से ही तेज़ थे और हमेशा अपनी क्लास के दूसरे बच्चों से आगे रहते। उनकी माँ अक्सर कहतीं कि उनका बेटा बड़ा होकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। माँ की ये बात कोटि रेड्डी को मन लगाकर, मेहनत करते हुए पढ़ाई-लिखाई करने के लिए प्रेरित करती रहती।

स्कूल के दिनों में ही कोटि रेड्डी को किताबों से प्यार हो गया था। सिर्फ स्कूली किताबें ही नहीं, बल्कि पाठ्यक्रम के बाहर की किताबें भी उन्हें अपनी ओर आकर्षित करतीं। गाँव की लाइब्रेरी की किताबों से दिल भर गया तो वे करीब सात किलोमीटर दूर तहसील मुख्यालय की सरकारी लाइब्रेरी से किताबें लाकर पढ़ने लगे। कोटि रेड्डी सात किलोमीटर की ये दूरी साइकिल से तय करते थे। उम्र छोटी थी, लेकिन वे बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ने लगे थे। हाई स्कूल के दिनों में ही उन्होंने कई सारे महान लोगों की जीवनियाँ पढ़ ली थीं। कोटि रेड्डी बचपन में आंध्रप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री तंगुटूरि प्रकाशम पंतुलु और ‘माइक्रोसॉफ्ट’ के संस्थापक बिल गेट्स के किस्सों-कहानियों से बहुत प्रभावित हुए। कोटि रेड्डी ने पढ़ा था कि तंगुटूरि प्रकाशम बचपन में नंगे पाँव ही पैदल चलकर कई किलोमीटर दूर अपने स्कूल जाते थे। मुश्किलों से भरे हालात में भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी और संघर्ष करते रहे। आगे चलकर वे राज्य के पहले बैरिस्टर बने और बढ़-चढ़ कर आज़ादी की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। वे आज़ादी के बाद आंध्र के पहले मुख्यमंत्री भी बने, लेकिन जब उनकी मौत हुई तब वे अपने पीछे सिर्फ दो जोड़ कपड़े और चप्पलें छोड़ गए। तंगुटूरि प्रकाशम की सादगी, उनके आदर्शों और साहस का कोटि रेड्डी के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा। ‘कॉलेज ड्राप आउट’ से दुनिया के सबसे अमीर इंसान बनने की बिल गेट्स की कहानी से भी कोटि रेड्डी बचपन में बहुत प्रभावित हुए। ‘माइक्रोसॉफ्ट’ की कामयाबी और लोकप्रियता की वजह से बिल गेट्स कोटि रेड्डी के ‘आदर्श बन गए।

दिलचस्प बात ये भी थी कि कोटि रेड्डी ने बचपन में ही साहित्य की पुस्तकें भी पढ़ना शुरू कर दी थीं। ‘चंदामामा’ और ‘बाल मित्रा’ उनकी सबसे पसंदीदा किताबें थीं। वे तेलुगु साहित्य के दो धुरंधर रचनाकारों - गुरजाड़ा अप्पा राव और चलम के भी दीवाने थे। चलम वो साहित्यकार थे, जिन्होंने मानवीय संबंधों से जुड़े विविध पहलुओं को आधार बनाकर कहानियाँ और उपन्यास लिखे। पुरुष होने के बावजूद उन्होंने स्त्रीवाद का पक्ष लिया और कालजयी रचनाएँ लिखीं। उनकी साहित्यिक रचनाएँ प्रौढ़ लोगों के लिए थीं और चूँकि इन रचनाओं में स्त्री-पुरुषों के बीच शारीरिक संबंधों, जायज़ और नाजायज़ रिश्तों के ताने-बाने का भी ज़िक्र होता कई लोग इसे ‘केवल वयस्कों के लिए’ की श्रेणी में रखते थे। कई महिलाएँ चलम के साहित्य को चोरी-छिपे पढ़ती थीं, लेकिन कोटि रेड्डी ने हाई स्कूल के दिनों में ही चलम की रचनाओं को पढ़ना और समझना शुरू कर दिया था।

एक दिन लाइब्रेरियन ने कोटि रेड्डी को चलम का एक उपन्यास पढ़ते हुए देख लिया। लाइब्रेरियन के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा। तेरह-चौदह साल के स्कूली छात्र को चलम का उपन्यास पढ़ते देखकर लाइब्रेरियन दंग रह गये। उन्होंने कोटि रेड्डी को समझाने की कोशिश भी की कि चलम की किताबें बच्चों के लिए नहीं हैं, लेकिन कोटि रेड्डी इतना प्रभावित थे कि उन्होंने चलम की हर रचना को पढ़ने की ठान ली थी।


बचपन में ही कोटि रेड्डी को धार्मिक कार्यों और धार्मिक ग्रंथों से भी लगाव हो गया था। कोटि रेड्डी की दादी हमेशा धार्मिक ग्रन्थ ही पढ़ती रहतीं। कोटि रेड्डी ने कहा, ‘मैंने कभी भी अपनी दादी को घर का कोई काम करते नहीं देखा। वे बस धार्मिक किताबें पढ़ रही होतीं या फिर मन्त्रों का जाप करती नज़र आतीं।’ ‘गीता मन्दिरम’ के प्रभाव में आने की वजह से कोटि रेड्डी ने बचपन से ही भगवद गीता भी पढ़ना शुरू कर दिया था। छोटी उम्र में ही कोटि रेड्डी को ये भी अहसास हो गया कि भगवद गीता में सम्पूर्ण जीवन का सार है और आधार है। इतना ही नहीं भगवद गीता जीवन की समस्याओं को सुलझाने का हल भी बताती है। कोटि रेड्डी ने भगवद गीता को ही अपना सबसे बड़ा गुरु बना लिया।


कोटि रेड्डी ने बचपन में ही कारोबार में कामयाबी के लिए ज़रूरी मूल मन्त्र सीख लिए थे। कुछ घटनाएंँ ऐसी हुई थीं जिनकी वजह से कोटि रेड्डी को ऐसे सबक मिले थे, जिनसे उनको उनके कारोबारी-जीवन में काफी फायदा पहुंचा।

स्कूल के दिनों में कोटि रेड्डी को एक बार उनके चाचा के लड़के ने पॉकेट ग्रीटिंग कार्डस दिखाए थे। कोटि रेड्डी को ये कार्ड बहुत पसंद आये और वे उन्हें अपने स्कूल ले गये। जब स्कूल में उनके एक साथी ने ग्रीटिंग कार्ड देखा तो उन्हें भी वो बहुत पसंद आया। स्कूल के साथी ने ग्रीटिंग कार्ड का दाम पूछा तो कोटि रेड्डी ने झूठ बोला। ग्रीटिंग कार्ड का दाम 10 पैसे था, लेकिन कोटि रेड्डी से उसका दाम 25 पैसे बताया था। साथी को वो कार्ड इतना पसंद आया कि उसने 25 पैसे देकर वो कार्ड ख़रीद लिया था। अपने जीवन की इस एक पहली कारोबारी घटना और मुनाफे से उत्साहित कोटि रेड्डी के मन में एक विचार आया। विचार था – स्कूल में ग्रीटिंग कार्ड का कारोबार करना। स्कूल के बच्चों के लिए सुन्दर रंगीन ग्रीटिंग कार्ड बिलकुल नई चीज़ थे। कई बच्चे इन ग्रीटिंग कार्डों के दीवाने हो गए थे। स्कूल के बच्चों को ये पता नहीं था कि पॉकेट साइज़ ग्रीटिंग कार्ड कहाँ मिलते हैं और उनकी कीमत क्या है ? इसी बात का फायदा उठाने का ख्याल कोटि रेड्डी के मन में आया था। अब कोटि रेड्डी हर दिन ग्रीटिंग कार्ड ख़रीदकर लाने लगे और उन्हें दोहरी से ज्यादा रकम पर बच्चों को बेचने लगे। बच्चे ग्रीटिंग कार्डों को इतना पसंद करने लगे थे कि 15 से 20 मिनट में भी कोटि रेड्डी के सारे कार्ड बिक जाते। कोटि रेड्डी इस कारोबार और मुनाफ़े से बहुत खुश हो रहे थे। लेकिन उनकी ये खुशी ज्यादा दिन तक नहीं टिक पायी। एक दिन स्कूल की एक लड़की को ग्रीटिंग कार्ड की असली कीमत का पता चल गया और उसने जाकर मास्टर से शिकायत कर दी। मास्टर पेंटय्या कोटि रेड्डी को बहुत चाहते थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि कोटि रेड्डी स्कूल के बच्चों से ही कारोबार कर मुनाफ़ा कमा रहे हैं तो उन्हें बहुत गुस्सा आया। मास्टर ने कोटि रेड्डी को खरी-खोटी सुनायी और उनकी जमकर पिटाई भी की।


कोटि रेड्डी कहते हैं, “मैंने इस घटना से अपने जीवन में कारोबार का पहला पाठ सीखा था। मैं समझ गया था कि छोटे मुनाफ़े के लिए कभी भी कारोबार नहीं करना चाहिए और कारोबार भी ऐसा नहीं करना चाहिए जहाँ आपकी इज़्ज़त दाँव पर लग जाए। मास्टर की पिटाई से पहले मैं स्कूल में राजा की तरह रहता था। सभी टीचर मुझे बहुत मानते थे। मैं क्लास में अव्वल रहता था। मेरे खूब ठाठ थे, लेकिन इस घटना के बाद मुझे कई दिनों तक अपने काम पर शर्मिन्दगी हुई। मुझे बहुत पछतावा हुआ।”

कोटि रेड्डी ने दसवीं की परीक्षा में शानदार प्रदर्शन कर एक बार फिर अपने सभी शिक्षकों का मन जीता। पूरी तहसील में कोटि रेड्डी अव्वल आये थे। दिलचस्प बात यह थी कि यह उपलब्धि कोटि रेड्डी के हिस्से में उस समय आयी थी, जिस साल पूरे राज्य में दसवीं का ‘पास परसेंटेज’ पिछले सालों के मुकाबले सबसे कम था। तहसील भर में पहला रैंक हासिल कर कोटि रेड्डी ने न सिर्फ अपने स्कूल का नाम रोशन किया था, बल्कि अपने परिवारवालों को भी बेहद खुश किया था।


कोटि रेड्डी ने बचपन में ही बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना किया था। गरीबी के थपेड़े खाए थे। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि उन्हें भूखे पेट ही सोना पड़ा। घर-परिवार खेती-बाड़ी पर ही निर्भर था। फसल अच्छी होने पर भी कमाई कम ही होती थी। मुनाफ़ा कम था। फसल कम होने पर घाटा हो जाता था। एक बार तो बहुत बड़ा घाटा हुआ। इतना बड़ा घाटा कि कोटि रेड्डी के पिता कर्ज़दार बन गए। क़र्ज़ का भार काफी बड़ा था।


हुआ यूँ था कि मूसलाधार बारिश की वजह से कृष्णा नदी में बाढ़ आ गयी थी। नदी का पानी अपनी सीमाओं को लांघकर खेतों में घुस आया था। कई दिनों तक हुई लगातार बारिश की वजह से कोटि रेड्डी के पिता के खेतों में आठ से नौ फीट पानी भर गया था। रबी की खड़ी फसल बर्बाद हो गयी थी। पिता पर करीब ढाई लाख रूपये का क़र्ज़ हो गया, जोकि उस समय बड़ी रकम थी। भारी नुकसान और संकट के इन्हीं दिनों में कोटि रेड्डी के पिता की तबीयत भी काफी बिगड़ गयी। उनके हाथ-पाँव फूल गए। ऐसा लगता जैसे शरीर-भर में पानी भर गया हो। पिता की हालत इतनी बिगड़ी कि उनका चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया। हालत देखकर पिता को भी लगा कि अब वे जल्द ही दुनिया छोड़ने वाले हैं। एक दिन उन्होंने कोटि रेड्डी को बुलाकर उन लोगों की सूची भी बनवाई जिन्हें रुपये देने बाकी थे। पिता की बेबसी देखकर सभी घरवाले घबरा गए। पिता के सहारे ही सारा घर-परिवार चलता था।


पिता के इलाज के लिए उन्हें कई जगह ले जाया गया। कई डाक्टरों से सलाह ली गयी, लेकिन बात नहीं बनी। इस बीच कोटि रेड्डी को नंदीगाम के डाक्टर श्रीनिवास रेड्डी के बारे में पता चला। इलाज के लिए कोटि रेड्डी के पिता को डाक्टर श्रीनिवास रेड्डी के पास ले जाया गया। मरीज़ की हालत देखते ही डाक्टर श्रीनिवास रेड्डी ने बताया कि घबराने की कोई ज़रुरत नहीं है। डाक्टर ने परिवारवालों को बताया कि कोटि रेड्डी के पिता को थाइरोइड की बीमारी है और ये दवाइयों से ही ठीक हो जायेगी। डाक्टर ने दवाइयों की चिट्टी थमाकर कोटि रेड्डी के पिता का वापस भिजा दिया। डाक्टर श्रीनिवास रेड्डी की दवाईयों ने कुछ ही दिनों में असर दिखाया और कोटि रेड्डी के पिता ठीक हो गए।


कोटि रेड्डी कहते हैं, “मेरे पिता बहुत ही साहसी थे। उनका रवैया भी हमेशा सकारात्मक ही रहता। बाढ़ की वजह से हुए नुकसान से भी वे ज्यादा परेशान नहीं हुए थे, लेकिन बीमारी ने उन्हें बहुत ही कमज़ोर कर दिया था। उनके इलाज के दौरान मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला था। जो सबसे बड़ा पाठ मैंने सीखा था वो यही था कि असली समस्या क्या है, इसका पता लगाये बिना हम किसी भी समस्या का हल नहीं निकाल सकते। समस्या का हल ढूँढने से पहले समस्या को समझना बेहद ज़रूरी है। हम मेरे पिता की सही समस्या का पता नहीं लगा पाए थे इसी वजह से उनका सही इलाज नहीं हो पा रहा था। जैसे ही सही डाक्टर के पास ले गए और उन्होंने पता लगा लिया कि समस्या क्या है, तो फिर उस समस्या का हल भी जल्द ही निकल आया।”

कोटि रेड्डी ने अपने बचपन में कई तरह के ऐसे अनुभव जुटाए जोकि आगे चलकर उन्हें तरक्की के रास्ते पर तेज़ी से ले चलने में मददगार साबित हुए। बचपन में कोटि रेड्डी से कई तरह के जोखिम उठाए। कोटि रेड्डी को आज भी वो रात याद है, जब उन्हें खेत की पहरेदारी करते समय एक सांप ने काटा था।


उन दिनों धान की फसल तैयार होकर खड़ी थी। बस कटाई का काम बाकी था। आस-पड़ोस के खेतों में भी कटाई का काम पूरा हो गया था। कोटि रेड्डी के पिता के खेतों में कटाई का काम बाकी था। पिता और कोटि रेड्डी रात में फसल की रखवाली के लिए पहरेदारी करते थे। एक रात को पिता ने पहरेदारी की ज़िम्मेदारी कोटि रेड्डी को सौंपी और घर चले गए। पिता थक चुके थे, इसी वजह से घर जाकर आराम करना चाहते थे। पिता के घर चले जाने के बाद कोटि रेड्डी अकेले ही उस अंधेरी रात में खेतों में खड़ी फसलों की रखवाली करने लगे। वे खेतों में इधर-उधर घूम ही रहे थे कि उन्हें कहीं से पानी की जोरदार धार की आवाज़ सुनायी दी। इस आवाज़ से कोटि रेड्डी को आभास हो गया कि खेतों में पानी के घुस आने का खतरा है। वो उस ओर बढ़े जहाँ से पानी के बहने की आवाज़ आ रही थी। कोटि रेड्डी की शंका सही थी, पास की एक नहर में दरार पड़ गयी थी और उसका पानी बड़ी तेज़ी से बाहर निकल आ रहा था। पानी के तेज़ बहाव को देखकर वे समझ गए कि घर से पिता को बुलाकर लाने तक पानी खेतों में घुस जाएगा और फसल बर्बाद हो जाएगी। सूझ-बूझ से काम लेते हुए किशोर कोटि रेड्डी ने खुद ही पानी की धार को अपने खेतों से दूर और उल्टी दिशा में मोड़ने की कोशिश शुरू कर दी। इस कोशिश में वे कामयाब भी हो गए। नहर के पानी का बहाव अब उनके खेतों की तरफ नहीं था। फिर भी कोटि रेड्डी वहीं खड़े रहे ताकि पानी के अपना रास्ता बदलने की स्थिति में वे फिर उसका रास्ता अपने खेतों से उलट दिशा में कर सकें। कोटि रेड्डी खेत में खड़े ही थे कि उनके पाँव के पास कुछ हलचल हुई। उन्हें लगा कि उनके पांवों के ऊपर से कुछ गुज़र रहा है, जैसे ही उन्होंने अपने पाँव हिलाए एक सांप से उन्हें काट लिया।


सांप के काटते ही कोटि रेड्डी काफी घबरा गए। उन्हें लगा कि सांप का ज़हर उनकी जान ले लेगा। कोटि रेड्डी ने मदद के लिए इधर-उधर नज़र दौड़ाई। आसपास कोई नहीं था। उन्हें दूर-दूर तक बस खेत ही खेत दिखाई दे रहे थे। उन्हें लगा कि अब उनका बचना मुश्किल है। संकट के इस समय में कोटि रेड्डी को आठवीं क्लास में पढ़ाई गयी एक बात याद आयी। आठवीं क्लास में उन्हें सिखाया गया था कि सांप के काटने पर किस तरह से प्राथमिक उपचार किया जाता है। उन बातों को याद कर कोटि रेड्डी के फट-से अपना गमछा निकाला और उसे उस पाँव पर कसकर बाँध दिया जिस पाँव पर सांप से काटा था। गमछा बाँधने के बाद कोटि रेड्डी उस दिशा में आगे बढ़े जहाँ एक सड़क थी। कोटि रेड्डी को लगा कि घर पहुँचते-पहुँचते एक घंटा बीत जाएगा और इस दौरान ज़हर अपना असर दिखाकर उनकी जान ले लेगा। इसी वजह से उन्होंने उस सड़क की ओर जाना बेहतर समझा जहाँ जल्दी पहुंचा जा सकता था और वक्त रहते इलाज पाने की संभावना ज्यादा थी। सड़क की ओर बढ़ते समय कोटि रेड्डी को रास्ते में नीम का एक पेड़ भी दिखाई दिया। उन्होंने नीम के कुछ पत्ते लिए और उन्हें चबाने लगे। कोटि रेड्डी ने कहीं सुना था कि अगर सांप काटने के बाद नीम के पत्तों को खाने पर मूंह में कड़वाहट बनी रहती है तो इसका मतलब होता है कि ज़हर असर नहीं कर रहा है। कोटि रेड्डी को नीम के पत्ते कड़वा स्वाद ही दे रहे थे, इससे उनमें उम्मीद बंधी कि सांप के काटने का असर उनपर नहीं हो रहा है। अब उनकी चाल में तेज़ी आयी और धीरे-धीरे ये तेज़ी बढ़ने लगी। रास्ते में ही उन्हें गाँव के कुछ लोग दिखाई दिए। गांववालों को कोटि रेड्डी ने सारी घटना बताई। गांववाले बड़ी तेज़ी से कोटि रेड्डी को अस्पताल ले गए, जहाँ उनका इलाज हुआ। दो घंटे तक पर्यवेक्षण में रखने के बाद अस्पताल में डाक्टर इस नतीजे पर पहुंचे कि कोटि रेड्डी को जिस सांप ने काटा था वो ज़हरीला नहीं था, यानी कोटि रेड्डी के शरीर में ज़हर गया ही नहीं। डाक्टर की ये बात सुनकर कोटि रेड्डी की जान में जान आयी। गांववाले फिर उन्हें घर ले गए और जब पिता को ये सारी घटना का पता चला तो उन्हें बहुत पछतावा हुआ। पिता को लगा कि बेटे को खेत में अकेला छोड़कर उन्होंने बहुत बड़ी ग़लती की थी और अपने बेटे की जान को खतरे में डाला था।


उस घटना की यादें ताज़ा करते हुए कोटि रेड्डी ने कहा, “मैं बहुत घबरा गया था। मेरी उम्मीदें टूट चुकी थीं। मुझे लगा था कि मैं नहीं बचूँगा, लेकिन मैं बच गया। इस घटना ने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया था। मैं जान गया कि हर इंसान अपने साथ अपनी मौत की तारीक भी लिखाकर अपने साथ लाता है। जन्म और मृत्यु के बीच का जो सफ़र है, वही ज़िंदगी है और हर इंसान को अपनी ज़िंदगी पूरी जीनी चाहिए। ज़िंदगी पूरी जीने से मेरा मतलब है कि अपने सपनों को साकार करने के लिए कोशिशें करते रहना। जहाँ कोशिशें रुक जाती हैं, मानो वहीं मौत के बगैर ही ज़िंदगी ख़त्म हो जाती है। सांप के काटने के बाद मैं बहुत घबरा गया था, लेकिन जिंदा रहने की कोशिश में ही मैं आगे सड़क की तरफ बढ़ा था, मैं हारकर खेत में ही नहीं बैठा रह गया। अच्छी ज़िंदगी जीने की चाह ही मुझे प्रोत्साहित करती रही कि मैं काम करता रहूँ और अपने सपनों को साकार करूँ।” 


घटनाओं-दुर्घटनाओं की वजह से छोटी उम्र में ही बड़ी-बड़ी बातें सीख लेने वाले कोटि रेड्डी के जीवन में उस समय बदलाव बड़ी तेज़ी से होने लगे, जब उन्होंने कंप्यूटर के बारे में जाना शुरू किया। कंप्यूटर से कोटि रेड्डी का परिचय भी अजीबोगरीब ढ़ंग से हुआ था। जनवरी का महीना था। आंध्र के किसानों के लिए जनवरी का महीना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। खरीफ की फसल जब कटकर आ जाती तब किसान खुशी से पोंगल मनाते हैं। उस जनवरी में कोटि रेड्डी के पिता को खेती-बाड़ी से अच्छा-ख़ासा मुनाफ़ा हुआ था। इस मुनाफ़े से बेहद खुश पिता ने कोटि रेड्डी को एक हज़ार रुपये दिये और पोंगल त्यौहार के लिए नए कपड़े खरीदने को कहा। कोटि रेड्डी के लिए ऐसा पहली बार हो रहा था कि उन्हें कपड़े खरीदने के लिए रुपये दिए गए थे। इससे पहले हर बार माता-पिता ही कपड़े सिलवाकर उन्हें देते थे। पिता के दिए हुए हज़ार रुपये लेकर कोटि रेड्डी अपने गाँव से सबसे करीब के टाउन गुडिवाडा गये। अब तक उन्होंने हमेशा सिलवाए हुए कपड़े पहने थे और इस बार त्यौहार पर उन्होंने रेडीमेड कपड़े पहनने के सपने देखे थे। वे पहली बार ही खुद शौपिंग करने जा रहे थे। मन उमंगों से भरा था। दिल खुश था। अपने चहेते दोस्तों के साथ कोटि रेड्डी गुडिवाडा गये, लेकिन, गुडिवाडा में कोटि रेड्डी ने त्यौहार के लिए नए कपड़े नहीं खरीदे। उन्हें टाउन में एक कंप्यूटर इंस्टिट्यूट दिखाई दिया। इस इंस्टिट्यूट को चलाने वालों ने पोंगल के अवसर पर नए छात्रों को एक ऑफर दिया था। इस ऑफर के तहत 45 दिन के कंप्यूटर कोर्स की फीस को घटाकर एक हज़ार रुपये कर दिया गया था। जैसे ही कोटि रेड्डी की नज़र कंप्यूटर इंस्टिट्यूट के ऑफर वाले बोर्ड पर पड़ी उन्होंने फैसला कर लिया कि वे इंस्टिट्यूट ज्वाइन कर कंप्यूटर की बारीकियों को सीखेंगे और समझेंगे। कोटि रेड्डी जानते थे कि उन दिनों कंप्यूटर का ज्ञान रखने वालों की बाज़ार में बहुत मांग है। वैसे भी कोटि रेड्डी ने बिल गेट्स को अपना आदर्श बना लिया और वे कंप्यूटर के ज़रिए ही अपने सारे सपनों को साकार करने का इरादा रखने लगे थे। कोटि रेड्डी ने पोंगल त्यौहार के लिए नए कपड़े खरीदने के बजाय उस कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में अपने नाम का पंजीकरण करवा लिया और रसीद लेकर वापस अपने गाँव-घर लौट आये। जब माँ-बाप ने देखा कि उनका बेटा शहर से खाली हाथ आया है, तब उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने बेटे से खाली हाथ लौटने की वजह पूछी। कोटि रेड्डी से कंप्यूटर इंस्टिट्यूट वाली बात जानकर पिता को बहुत गुस्सा आया। पिता ने आव देखा न ताव झट से झाड़ू उठाया और कोटि रेड्डी को पीटने लगे। माँ के बीच में आने और बीच-बचाव करने पर कहीं जाकर पिता रुके, लेकिन उनका गुस्सा ठंडा नहीं पड़ा। गुस्से से लाल-पीले हुए पिता घर से बाहर चले गए। कुछ ही देर बाद वे वापस घर लौटे और कहा – “मैंने गाँव के पढ़े-लिखे लोगों से कंप्यूटर के बारे में पता किया है। सभी लोगों ने यही कहा कि कंप्यूटर की पढ़ाई में लाखों रुपये का खर्च आता है और ये काम सिर्फ अमीर लोग ही कर सकते हैं। ग़रीब किसान अपने बच्चों को कंप्यूटर की शिक्षा नहीं दिलवा सकता।”

ये बातें सुनकर कोटि रेड्डी ने अपने पिता को बताया कि नया ज़माना कंप्यूटर का ही है और ऊपर से उनका ये कोर्स सिर्फ 45 दिन का है। चूँकि फीस भी जमा की जा चुकी थी अब कोर्स पूरा करने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है। पिता की भी समझ में आ गया कि अब उनका बेटा किसी की नहीं सुनेगा और अपना कोर्स पूरा करेगा।


कोटि रेड्डी ने कंप्यूटर इंस्टिट्यूट जाना शुरू कर दिया। उन्होंने कंप्यूटर इंस्टिट्यूट जाना क्या शुरू किया उनकी ज़िंदगी ने तरक्की का रास्ता पकड़ लिया। कंप्यूटर की बारीकियों को समझने का जुनून कोटि रेड्डी पर कुछ इस तरह से सवार था कि वे इंस्टिट्यूट के खुलने से पहले ही वहां पहुँच जाते थे। हर दिन वे अपनी साइकिल पर सवार होकर इंस्टिट्यूट जाते और कई बार तो सफाई करने वाले लोगों से भी पहले वहाँ मौजूद होते। कोटि रेड्डी बताते हैं, “जल्दी पहुँचने से मुझे बहुत फायदा होता। मैं अपना ज्यादा समय कंप्यूटर पर दे पाता। इंस्टिट्यूट के लैब में कंप्यूटर पर ट्रेनिंग के लिए विद्यार्थियों को एक या दो घंटे से ज्यादा समय नहीं दिया जाता।”


कोटि रेड्डी अच्छी तरह से जान गए थे कि कंप्यूटर ही उनको उनकी मंज़िल तक पहुँचाएगा। यही वजह थी कि जब कभी उन्हें समय और मौका मिलता वे कंप्यूटर के सामने होते। दिलचस्प बात ये थी कि कोटि रेड्डी बहुत कम समय में कंप्यूटर की भाषा समझ गए थे। ज्वाइन करने के कुछ ही दिनों बाद वे दूसरे विद्यार्थियों की मदद भी करने लगे थे। कोटि रेड्डी कंप्यूटर के ज्ञान-विज्ञान दोनों पर अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे थे। उन्होंने कुछ ही दिनों में कंप्यूटर की ‘सी लैंग्वेज’ सीख ली थी।


इसी दौरान उन्हें एक जनरल स्टोर में डाटा एंट्री का काम मिला। चूँकि काम कंप्यूटर से जुड़ा था और उन्हें रुपयों की भी सख़्त ज़रुरत थी, कोटि रेड्डी ने नौकरी की पेशकश को बिना किसी देरी के स्वीकार कर लिया। ये कोटि रेड्डी की पहली नौकरी थी। और, उनकी पहली तनख्वाह थी 700 रुपये महीना। पहली तनख्वाह पाकर कोटि रेड्डी बहुत खुश और उत्साहित हुए, लेकिन कोटि रेड्डी का मन कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में रम गया था। जनरल स्टोर में काम करने के लिए जाने से पहले वे इंस्टिट्यूट ज़रूर जाकर थे। डाटा एंट्री का काम पूरा होने के बाद भी वे इंस्टिट्यूट ही जाते। जनरल स्टोर के मालिक ताड़ीपत्रि सूर्यप्रकाश राव भी जल्द ही समझ गए थे कि कोटि रेड्डी का सारा ध्यान इंस्टिट्यूट में ही लगा रहता है। एक दिन सूर्यप्रकाश राव ने इंस्टिट्यूट के शिक्षक अनिल को ये बात बताई और उनसे कोटि रेड्डी को इंस्टिट्यूट में ही नौकरी देने की सिफारिश भी की। अनिल ने सिफारिश को मानते हुए कोटि रेड्डी को भी इंस्टिट्यूट में फैकल्टी बना दिया। यानी कोटि रेड्डी कुछ ही दिनों में कंप्यूटर के विद्यार्थी से प्राध्यापक हो गए। इंस्टिट्यूट में बतौर प्राध्यापक उनकी तनख्वा 1150 रुपये प्रति महीना तय की गयी। 

कंप्यूटर के प्राध्यापक के तौर पर कोटि रेड्डी काफी मशहूर भी हो गए। इसकी एक ख़ास वजह भी थी। वे ग्रामीण परिवेश से आने वाले विद्यार्थियों को तेलुगु में कंप्यूटर की बारीकियाँ समझाते थे। मातृ-भाषा में समझाए जाने की वजह से विद्यार्थी भी कंप्यूटर की भाषा आसानी से जानने-समझने और इस्तेमाल करने लगे थे। कोटि रेड्डी को उस ज़माने की मशहूर आईसीएसएस कंप्यूटर इंस्टिट्यूट से भी नौकरी की पेशकश मिली। चूँकि यहाँ तनख्वाह ज्यादा थी, कोटि रेड्डी ने नई नौकरी को ‘हाँ’ कर दी। यहाँ उनकी तनख्वाह बढ़ाकर सात हज़ार रुपये महीना कर दी गयी थी। जब कोटि रेड्डी ने अपने घरवालों को उनकी इस तनख्वाह के बारे में बताया वो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। पिता दिन-रात मेहनत करने के बाद एक एकड़ ज़मीन से अच्छी फसल के बाद भी सिर्फ ढ़ाई या तीन हज़ार रुपये ही निकाल पाते थे, लेकिन उनका लड़का अब सीधे सात हज़ार रुपये महीना कमा रहा था। माँ को अपने बेटे पर विश्वास था और वे अब भी कहतीं कि उनका बेटा और भी बड़ा आदमी बनेगा।


माँ की बात सच साबित होती चली गयी। कोटि रेड्डी कदम दर कदम तरक्की के रास्ते पर चलते ही गए। उन्हें एनआईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में भी विद्यार्थियों को कंप्यूटर की भाषा पढ़ाने का मौका मिला। इसी बीच उन्हें ये जानकारी मिली कि जिस इंस्टिट्यूट में उन्होंने कंप्यूटर की भाषा सीखी थी वो बंद होने वाला है। इस इंस्टिट्यूट को रजिता और सुहासिनी नाम की दो महिलाएँ मिलकर चलाती थीं। बंद किये जाने की खबर मिलते ही कोटि रेड्डी रजिता के पास पहुंचे और कारण जानने की कोशिश की। कारण बताते समय रजिता के आँखों में आंसू थे। आँसू देखकर कोटि रेड्डी सहम गए। रजिता ने कोटि रेड्डी को बताया कि आसपास कई सारे कंप्यूटर इंस्टिट्यूट खुल जाने की वजह से अब उनके इंस्टिट्यूट में ज्यादा बच्चे नहीं आ रहे हैं और विद्यार्थियों की कमी की वजह से घाटा हो रहा है। ये बात सुनते ही कोटि रेड्डी के मन में एक नया ख्याल आया। उन्होंने रजिता से उनका इंस्टिट्यूट उन्हें बेच देनी की बात कही। कोटि रेड्डी को अपनी काबिलियत पर विश्वास था और वे महसूस कर रहे थे कि वे इंस्टिट्यूट को घाटे से उबार लेंगे। रजिता इंस्टिट्यूट को बेचने के प्रस्ताव को मान गयीं, लेकिन अब कोटि रेड्डी के सामने इंस्टिट्यूट को खरीदने के लिए ज़रूरी रुपये जुटाने की चुनौती थी। रुपये जुटाने के लिए कोटि रेड्डी ने अपने पुराने दोस्तों से संपर्क किया। पुराने दोस्तों में एक मुनि बाबू निवेश करने के लिए राजी हो गए। इंस्टिट्यूट को चलाने को लेकर कोटि रेड्डी और मुनि बाबू में एक समझौता हुआ। इस समझौते के तहत मुनि बाबू पच्चीस हज़ार रुपये का निवेश करेंगे और इंस्टिट्यूट को अपने ज्ञान और अनुभव से चलाने की ज़िम्मेदारी कोटि रेड्डी की होगी। ये समझौता होने के कुछ ही दिनों बाद इंस्टिट्यूट कोटि रेड्डी और मुनि बाबू का हो गया। ये घटना कोटि रेड्डी के जीवन की बड़ी महत्वपूर्ण घटना थी। जिस इंस्टिट्यूट में उन्होंने कंप्यूटर के बारे में जाना-समझा था, उसी इंस्टिट्यूट के वे अब मालिक बन गए थे।

इंस्टिट्यूट को अपना बनाने के बाद कोटि रेड्डी ने रातोंरात गुडिवाडा शहर भर में पोस्टर लगवा दिये। फीस दूसरे कंप्यूटर इंस्टिट्यूट से कम रखी गयी। पोस्टरों का असर भी हुई और कई सारे लोगों ने इंस्टिट्यूट में दाखिला भी लिया। इंस्टिट्यूट दुबारा चल पड़ा और इससे कोटि रेड्डी और मुनि राजू को हर महीने अच्छी-खासी आमदनी भी होनी शुरू हुई। अब कोटि रेड्डी हर महीने पच्चीस हज़ार रुपये कमाने लगे थे। इंस्टिट्यूट की लोकप्रियता को उसके चरम पर ले जाने के बाद कोटि रेड्डी के मन में राजधानी हैदराबाद जाकर कंप्यूटर की दुनिया में और भी बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करने की इच्छा जगी। कोटि रेड्डी को अहसास हो गया था कि गुडिवाडा जैसे छोटे शहर में रहकर वे बड़ी-बड़ी कामयाबियाँ और उपलब्धियाँ हासिल नहीं कर सकते थे।


जब कोटि रेड्डी ने हैदराबाद जाने के अपने फैसले के बारे में अपने माता-पिता को बताया तो वे नहीं माने, लेकिन कोटि रेड्डी की ज़िद के सामने उन्हें झुकना पड़ा। कोटि रेड्डी इंस्टिट्यूट की सारी ज़िम्मेदारी अपने दोस्त और पार्टनर मुनि राजू को सौंपकर हैदराबाद चले आये। उन्हें हैदराबाद के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था। वे बस इतना जानते थे कि हैदराबाद सूचना-प्रौद्योगिकी का नया और बड़ा केंद्र बनकर उभर रहा है और यही वो जगह भी है जहाँ से वे अपने बड़े-बड़े सपनों को साकार कर सकते हैं। हैदराबाद में कोटि रेड्डी की बड़ी बहन अपने पति से साथ रहती थीं। कोटि रेड्डी के जीजाजी मेटल फेब्रिकेशन का काम करते थे। कोटि रेड्डी हैदराबाद में अपनी बहन और बहनोई के मकान पर ही ठहरे।


शुरू में तो कोटि रेड्डी को क्या काम करना है और उन्हें कहाँ काम मिल सकता है, इसकी जानकारी भी नहीं थी। बहनोई ने ही कोटि रेड्डी की हालत समझकर उन्हें कंप्यूटर रिपेयर करने का काम दिलवाया। इसके बाद कोटि रेड्डी पुर्जे जोड़कर कंप्यूटर बनाकर बेचने लगे। उन्हें जल्द ही ये भी अहसास हो गया कि पुर्ज़े जोड़कर कंप्यूटर बनाकर बेचने से ज्यादा आमदनी नहीं होगी। उन्होंने ठान लिया कि वे हार्डवेयर में नहीं बल्कि सॉफ्टवेयर में अपनी किस्मत आज़माएंगे। वे नए काम की तलाश में ही थे कि उन्हें ‘इम्पैक्ट कंप्यूटर्स’ में विद्यार्थियों को ‘सी लैंग्वेज’ पढ़ाने की पार्टटाइम नौकरी मिल गयी। इस दौरान वे दूसरे छोटे-मोटे काम भी करते रहे। इसके बाद उन्हें एक संपर्क से ‘जेडआईआईटी कंप्यूटर्स’ में काम करने का मौका मिला। यहाँ उन्होंने कंपनी के मालिक किरण को अपनी काबिलियत और प्रतिभा से खूब प्रभावित किया। आगे चलकर कोटि रेड्डी ने ‘सिंगुलारिटी’ और ‘एक्स्सेंसिस’ के लिए भी काम किया। हर जगह उन्होंने अपने कौशल और कम्प्यूटरी ज्ञान का लोहा मनवाया। कोटि रेड्डी के ‘इनफ़ोसिस’ के ‘डॉटनेट’ प्लेटफार्म पर भी काम किया और कुछ दिनों के लिए सी एस सॉफ्टवेयर इंटरप्राइजेज को भी अपनी सेवाएँ दीं।

इसी दौरान कोटि रेड्डी भारत के सबसे युवा जेसीपी यानी जावा सर्टिफाइड प्रोफेशनल भी बन गए थे। महज़ 17 की उम्र में कोटि रेड्डी ने ये मुकाम हासिल किया था। कोटि रेड्डी बताते हैं, “साल 1999 में ‘वाई2के’ की समस्या से सभी परेशान थे। उन दिनों सी लैंग्वेज की अहमियत थोड़ी कम हुई और जावा प्रोग्राम की मांग बढ़ी थी। मैंने भी जावा को सीखा-समझा।”


कोटि रेड्डी के जीवन में एक बड़ा मोड़ उस वक्त आया जब उन्हें एक मल्टीनेशनल कंपनी ने चीफ टेक्निकल ऑफिसर यानी ‘सीटीओ’ बनाने की पेशकश की। कोटि रेड्डी ‘सीटीओ’ की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए बैंगलोर जाने की तैयारी में जुटे ही थे कि उन्हें बिल गेट्स की कंपनी ‘माइक्रोसॉफ्ट’ से बुलावा आया। कोटि रेड्डी ने मल्टीनेशनल कंपनी की ‘सीटीओ’ वाली नौकरी को ना कह दी और ‘माइक्रोसॉफ्ट’ में इंटरव्यू की तैयारी में जुट गए। कोटि रेड्डी कहते हैं, “मैं बिल गेट्स को भगवान मानता हूँ और ‘माइक्रोसॉफ्ट’मेरे लिए मंदिर जैसा है। इसी वजह से मैंने बहुत भारी रकम वाली नौकरी को तवज्जो न देकर ‘माइक्रोसॉफ्ट को चुना था।”


कोटि रेड्डी को इंटरव्यू के लिए हैदराबाद में ‘माइक्रोसॉफ्ट’ के दफ्तर में सुबह नौ बजे बुलाया गया। बेहद उत्साहित और बेचैन कोटि रेड्डी सुबह सात बजे ही ‘माइक्रोसॉफ्ट’ के दफ्तर पहुँच गए, लेकिन उन्हें नौ बजने से पहले दफ्तर में आने नहीं दिया गया। जब कोटि रेड्डी के इंटरव्यू में सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ तो वो चलता ही गया। सवाल-जवाब, परीक्षण-निरीक्षण के 12 राउंड हुए। सुबह से शाम हो गयी। सभी राउंड में कोटि रेड्डी ने अच्छा प्रदर्शन किया। कोटि रेड्डी को ‘माइक्रोसॉफ्ट’ में नौकरी के लिए ‘ऑफर लेटर’ देने की तैयारी की जाने लगी। ‘हेचआर’ की टीम ने कोटि रेड्डी को अपनी शैक्षणिक योग्यता के सारे प्रमाण-पत्र भेजने को कहा। कोटि रेड्डी सिर्फ दसवीं पास थे, इसी वजह से उन्होंने दसवीं का प्रमाण-पत्र भेज दिया। इस पर हेचआर’ की टीम ने जवाब में डिग्री का प्रमाण-पत्र भेजने को कहा। प्रति-उत्तर में कोटि रेड्डी ने ‘हेचआर’ की टीम को बताया कि वे सिर्फ दसवीं पास हैं। ये बात जानकर ‘माइक्रोसॉफ्ट’के सारे आला अधिकारी दंग रह गए। कोटि रेड्डी ने इंटरव्यू के दौर में अच्छे-अच्छे और बड़े-बड़े विद्वानों को पछाड़ा था। बीटेक, एमटेक, पीहेचडी जैसी बड़ी डिग्री रखने वाले भी उनके सामने फीके साबित हुए थे। ‘माइक्रोसॉफ्ट’में नियम-कायदे ही ऐसे थे कि बिना डिग्री वालों को नौकरी पर रखा ही नहीं जाता था, लेकिन कोटि रेड्डी की काबिलियत ऐसी थी कि उसे नकारा भी नहीं जा सकता था। कोटि रेड्डी को लेकर ‘माइक्रोसॉफ्ट’ के आला अधिकारी दुविधा में पड़ गए, लेकिन उस समय भारत में ‘माइक्रोसॉफ्ट’ के प्रमुख ने अधिकारियों को सलाह दी कि वे कोटि रेड्डी की काबिलियत और प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए उन्हें ‘स्पेशल केस’ की तरह ट्रीट करें और नौकरी पर रखें। इस तरह से कोटि रेड्डी ने नया इतिहास रचा। वे बिना किसी डिग्री के ‘माइक्रोसॉफ्ट’ में बड़े ओहदे पर नौकरी पाने वाले पहले भारतीय बने थे। 

‘माइक्रोसॉफ्ट’ में काम करते हुए कोटि रेड्डी ने खूब नाम कमाया। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की कामयाबी में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। मोबाइल एप्लीकेशन (एप्प) में उनके योगदान को खूब सराहा गया। अपने भगवान बिल गेट्स की कंपनी ‘माइक्रोसॉफ्ट’ में नौकरी करने का सपना सच होने के बाद कोटि रेड्डी ने अपनी ज़िंदगी के सबसे बड़े सपनों को ऊंची उड़ान देने की कोशिशें शुरू कीं। कोटि रेड्डी कहते हैं, “मैं एक उद्यमी बनना चाहता था। मैं टाटा, बिल गेट्स, स्टीव जॉब्स जैसे लोगों की तरह अपनी अलग पहचान बनाना चाहता था। इसी सपने को साकार करने के लिए मैं ‘माइक्रोसॉफ्ट’ की नौकरी छोड़कर भारत चला आया।”‘माइक्रोसॉफ्ट’ में कोटि रेड्डी को तगड़ी तनख्वाह मिल रही थी, वे बड़े ओहदे पर थे, खूब नाम था और शोहरत भी, लेकिन अपने दम पर बड़ा कारोबार खड़ा करने का सपना उन्हें स्वदेश ले आया।


भारत आते ही उन्होंने ‘भारत इन्नोवेशन लैब्स’ की स्थापना की। ये कंपनी अलग-अलग संस्थाओं में सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करती है। इसके बाद कोटि रेड्डी ने ‘इंडिया हेराल्ड’ नाम की मीडिया संस्था बनाई। अपनी एक समाज-सेवी संस्था के ज़रिए वे समाज में ज़रूरतमंद और ग़रीब लोगों की सहायता भी कर रहे हैं। ये तीनों संस्थाएं ‘कोटि ग्रुप ऑफ़ वेंचर्स’ के बैनर तले चल रही हैं। इन सब घटनाओं के बीच कोटि रेड्डी ने ‘डिस्टेंस एजुकेशन मोड’ के ज़रिए बीएससी और एमसीए की डिग्री भी हासिल कर लीं।


आंध्रप्रदेश के एक छोटे से गाँव में जन्मे और सरकारी स्कूल में सिर्फ दसवीं तक की पढ़ाई करने वाले कोटि रेड्डी ने साबित किया कि कामयाब बनने के लिए डिग्री कोई मायने नहीं रखती। डिग्री नौकरी पाने का एक ज़रिया भर हो सकती है, लेकिन वो काबिलियत और कामयाबी की गारंटी नहीं दे सकती। 

कोटि रेड्डी आज एक कामयाब उद्यमी हैं और अपनी बनाई संस्थाओं के ज़रिए करोड़ों रुपयों का कारोबार भी कर रहे हैं, फिर भी उन्होंने सपने देखना बंद नहीं किया है। वे अपने कारोबार को विस्तार देना चाहते हैं। वे सैकड़ों, हज़ारों या लाखों नहीं करोड़ों जीवन को सकारात्मक तौर पर प्रभावित करने वाला काम करना चाहते हैं, नवपरिवर्तन लाना चाहते हैं। ख़ास बात ये भी है कि कारोबार के साथ-साथ वे समाज-सेवा में भी काफी सक्रिय हैं। उन्होंने जिस स्कूल में शिक्षा हासिल की उस स्कूल के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए ज़रूरी साधन मुहैया कराने का ज़िम्मा उठाया है। और भी कई तरह से वे ज़रूरतमंद लोगों की मदद कर रहे हैं। 




మరింత సమాచారం తెలుసుకోండి: